विद्यारंभ संस्कार क्या है ?
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हिन्दू धर्म में विद्यारंभ संस्कार बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। विद्यारंभ संस्कार का अर्थ है बच्चों को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से पहली बार परिचित कराना। पहले के समय में जब कोई भी बच्चा शिक्षा ग्रहण के लिए गुरुकुल जाता था तब इस संस्कार का अत्यधिक महत्त्व होता था।
हालांकि आज के युग में लोग इस संस्कार को मानों भूलते ही जा रहे हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार जिस भी प्राणी को विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष जैसे चारों फलों से वंचित रहना पड़ता है l
इसलिए मुंडन, कर्णवेध और अन्नप्राशन संस्कार की तरह ही इस संस्कार को करना बेहद जरुरी बताया गया है।
शिक्षा की प्राप्ति के लिए विद्यारंभ संस्कार किया जाता है।
विद्यारंभ संस्कार का महत्व ?
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जिस प्रकार लक्ष्य के बिना किसी भी जीव का जीवन निराधार होता है ठीक उसी प्रकार शिक्षा के बिना भी मनुष्य का जीवन व्यर्थ होता है इसलिए शिक्षा, ज्ञान और अच्छे संस्कारों को मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी माना गया है।
हिन्दू धर्म में विद्यारंभ संस्कार धर्म, वेद, ज्ञान, आदर्श और स्कूली शिक्षा अर्जित करने का प्रथम एवं बेहद महत्वपूर्ण चरण कहा जाता है।
इस संस्कार को माता-पिता भगवान की पूजा-अर्चना कर अपने बच्चे के लिए यह कामना करते हैं कि अपने जीवन में उनका बच्चा अच्छी व बेहतर शिक्षा ग्रहण कर समाज व उनके कुल का नाम और गौरव बढ़ाये।
विद्यारंभ संस्कार ही वो माध्यम हैं जिसकी मदद से शुरुआत में ही बच्चों में पढ़ाई और शिक्षा को लेकर एक अलग तरह का उत्साह और जिज्ञासा पैदा की जा सकती है।
इस संस्कार के माध्यम से हर माता-पिता अपने बच्चे के प्रति जागरूक तो होते ही हैं साथ ही हर शिक्षक भी बच्चों के प्रति अपना दायित्व भली-भांति ठीक से समझ पाता है। शायद इन्ही कारणों के चलते हिन्दू धर्म में विद्यारंभ संस्कार को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
विद्यारंभ मुहूर्त क्या है ?
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ज्योतिषियों के अनुसार मनुष्य के सुखी और सफल भविष्य के लिए बेहद जरूरी है कि वो अपने हर काम की शुरुआत शुभ मुहूर्त के अनुसार कर अशुभ को त्यागें। हिन्दू धर्म में हर शुभ कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त बताया गया है।
जिस प्रकार विवाह, नामकरण, मुंडन, आदि में शुभ समय को ध्यान में रखते हुए ही कार्य किये जाते हैं ठीक उसी तरह विद्यारंभ संस्कार के शुभ कार्य की शुरुआत करने से पहले भी एक मुहूर्त निकाला जाता है।
विद्यारंभ मुहूर्त का महत्व ?
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जिस प्रकार हम ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में आए दिन सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, जीत-हानि का स्वाद लेते रहते हैं ठीक उसी प्रकार हर मनुष्य की शिक्षा में शुभ-अशुभ का भी प्रभाव देखने को मिलता है।
ये देखा गया है कि ज़्यादातर अशुभ समय/मुहूर्त में किये कार्य या तो पूर्ण नहीं होते हैं या फिर उन्हें पूरा करने में कई प्रकार की बाधा आती हैं, इसी को ध्यान में रखते हुए विद्यारंभ के शुभ समय का चयन किया जाता है l
क्योकि विद्यारंभ के अच्छे मुहूर्त से न केवल बालक का भाग्य बदल सकता हैं बल्कि शिक्षा का पथ भी आने वाले समय के लिए सुगम बन सकता है।
विद्यारंभ संस्कार कब और कहाँ करें ?
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आमतौर पर विद्यारंभ संस्कार तब किया जाता है जब बच्चा 5 साल का हो जाता है। हालांकि माता-पिता बालक का ये संस्कार उस वक़्त भी करा सकते हैं जब बच्चे की उम्र अपनी शुरूआती शिक्षा करने की हो चुकी हो।
चूंकि आजकल, बच्चे कम उम्र में ही स्कूल जाने लगते हैं, जिससे अब विद्यारंभ संस्कार के लिए उम्र 5 साल की बजाय 3 से 4 साल में भी किया जाता है।
विद्यारंभ संस्कार करने के लिए किसी विशेष स्थान को निर्धारित नहीं किया गया है। यह हर उस स्थान पर किया जा सकता है जहां कोई भी बच्चा अपनी शिक्षा की शुरुआत कर सकता हो और उस स्थान पर इस संस्कार से जुड़े सभी अनुष्ठानों का पालन किया जा सके।
विद्यारंभ मुहूर्त की गणना ?
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अन्य मुहूर्त की तरह ही विद्यारंभ मुहूर्त पंचांग और जन्म तिथि या बच्चे की कुंडली का उपयोग करके निर्धारित किया जाता है। महीने की कुछ शुभ तारीखें, सप्ताह के दिन, नक्षत्र, ग्रहों की स्थिति इत्यादि ही बच्चे के लिए सर्वश्रेष्ठ विद्यारंभ मुहूर्त निकालने में मदद करते हैं।
अश्विनी, मृगशिरा, रोहिणी, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, मूल, रेवती, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, चित्रा, स्वाति, अभिजीत, धनिष्ठा, श्रवण, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और शतभिषा नक्षत्र विद्यारंभ संस्कार के लिए शुभ माने गये हैं।
चैत्र-वैशाख शुक्ल तृतीया, माघ शुक्ल सप्तमी तथा फाल्गुन शुक्ल तृतीया में यह संस्कार विशेष रूप से करना चाहिए।
चतुर्दशी, अमावस्या, प्रतिपदा, अष्टमी, सूर्य संक्रांति के दिन विद्यारंभ संस्कार नहीं करना चाहिए।
पौष, माघ और फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष में आने वाली अष्टमी तिथि भी निषेध होती हैं।
विद्यारंभ मुहूर्त चंद्र दोष और तारा दोष के समय नहीं किया जा सकता।
रविवार, सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार विद्यारंभ संस्कार के लिए उत्तम माने गये हैं।
वृषभ, मिथुन, सिंह, कन्या और धनु लग्न विद्यारंभ संस्कार के लिए सबसे उत्तम माने गये हैं। ये भी माना गया है कि जब वृषभ और मिथुन गृह सातवें स्थान पर, दसवे घर में एक लाभकारी ग्रह और आठवें घर में कोई ग्रह नहीं होता तो ऐसे में विद्यारंभ मुहूर्त सबसे ज्यादा शुभ माना जाता है।
कैसे करें विद्यारंभ संस्कार ?
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गुरुकुल काल में जब हर बच्चे का विद्यारंभ संस्कार किया जाता था, तब यज्ञ, हवन और पूजा-पाठ के बीच बच्चों को धार्मिक वेदों का अध्ययन रीती-रिवाज़ अनुसार कराया जाता था। अफ़सोस अब समय के साथ यह संस्कार घर या स्कूलों तक ही सिमट कर रह गया है।
विद्यारंभ संस्कार के दौरान मुख्य रूप से की जाने वाली पूजा:
गणेश पूजा- जिस प्रकार हर शुभ कार्य को करने से पहले भगवान गणेश की आराधना की जाती है, ठीक उसी प्रकार इस संस्कार को करने से पूर्व भी भगवान गणेश को पूजा जाता है।
सरस्वती पूजा- माता सरस्वती विद्या की देवी होती है इसलिए विद्या की प्राप्ति के लिए देवी सरस्वती के पूजन का अपना एक विशेष विधान है।
लेखनी पूजा- शिक्षा के 2 महत्वपूर्ण शस्त्र कलम और स्याही जिनके बिना लिखना व शिक्षा प्राप्त करना असंभव है, इसलिए इनकी भी पूजा इस दौरान की जानी चाहिए।
पट्टी पूजन- कलम का उपयोग पट्टी या कापी पर किया जाता है इसलिए इस संस्कार में पट्टी पूजन अनिवार्य होता है।
गुरु पूजा- हर छात्र के लिए शिक्षक ही उसका सबसे बड़ा गुरु होता है, इसलिए विद्यारंभ संस्कार में गुरु पूजा का विशेष महत्व है।
अक्षर लेखन पूजा- इस पूजन के दौरान गुरु बच्चे से कापी या पट्टी पर पहला अक्षर व गायत्री मंत्र लिखवाते हैं। जब बच्चा पहला अक्षर लिखता है, तो गुरु को पूर्वी दिशा में बैठना चाहिए और बच्चे को पश्चिम में बैठना चाहिए।
विद्यारंभ संस्कार एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्म है इसलिए प्रक्रिया पूरे विधि-विधान से पालन किया जाए तो यह बच्चे की शिक्षा में सहायक होता है।
या कुंदेंदु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता |
या वीणावर दण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ||
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता |
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ||
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा पुस्तक धारिणीं अभयदां जाड्यान्धकारापाहां|
हस्ते स्फाटिक मालीकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदां||
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्यः एव च।।
सरस्वती महाभागे विद्ये कमाल लोचने।
विद्यारूपी विशालाक्षी विद्याम देहि नमोस्तुते।।
विद्यादायिन्यै च विदमहे पुस्तकवासिन्यै धीमहि तन्नो
सरस्वती प्रचोदयात।।
नमो भगवति सरस्वती वाग्वादिनी ब्रह्माणी ब्रह्मरूपिणी ज्ञानेश्वरी महामेधा बुद्धिवर्धिनी मम् सर्व विद्याम् देही देही नमः।।२।।
यदक्षरपरिभ्रष्टं
स्वरव्यञ्जनवर्जितम् ।
तत्सर्वं क्षमत्तां देवि !
प्रसीद परमेश्वरी।।३।।
अथः श्री सरस्वती रहस्य स्तोत्रम्।।
नीहारहारघनसारसुधाकराभां कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम्।
उत्तुङ्गपीनकुचकुंभमनोहराङ्गीं,वाणीं नमामि मनसा वचसा विभूत्यै॥१॥
या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमेश्वरी।
नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती॥२॥
या साङ्गोपाङ्गवेदेषु चतुर्ष्वेकैव गीयते।
अद्वैता ब्रह्मणः शक्तिः सा मां पातु सरस्वती॥३॥
या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेणैव वर्तते।
अनादिनिधनानन्ता सा मां पातु सरस्वती॥४॥
अध्यात्ममधिदैवं च देवानां सम्यगीश्वरी।
प्रत्यगास्ते वदन्ती या सा मां पातु सरस्वती॥५॥
अन्तर्याम्यात्मना विश्वं त्रैलोक्यं या नियच्छति।
रुद्रादित्यादिरूपस्था सा मां पातु सरस्वती॥६॥
या प्रत्यग्दृष्टिभिर्जीवैर्व्यजमानानुभूयते। व्यापिनी ज्ञप्तिरूपैका सा मां पातु सरस्वती॥७॥
नामजात्यादिभिर्भेदैरष्टधा या विकल्पिता।
निर्विकल्पात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती॥८॥
व्यक्ताव्यक्तगिरः सर्वे वेदाद्या व्याहरन्ति याम्।
सर्वकामदुघा धेनुः सा मां पातु सरस्वती॥९॥
यां विदित्वाखिलं बन्धं निर्मथ्याखिलवर्त्मना।
योगी याति परं स्थानं सा मां पातु सरस्वती॥१०॥
नामरूपात्मकं सर्वं यस्यामावेश्य तां पुनः।
ध्यायन्ति ब्रह्मरूपैका सा मां पातु सरस्वती॥११॥
चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम। मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती॥१२॥
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥१३॥
अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तकधारिणी। मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा॥१४॥
कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता।
महासरस्वती देवी जिह्वाग्रे सन्निवेश्यताम्॥१५॥
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी ॥१६॥
नमामि यामिनीनाथलेखालंकृतकुन्तलां। भवानीं भवसन्तापनिर्वापणसुधानदीम्॥१७॥
यः कवित्वं निरातन्कं भुक्तिमुक्ती च वाञ्छति।
सोऽभ्यर्च्यैनां दशश्लोक्या नित्यं स्तौति सरस्वतीम्॥१८॥
तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीं।
भक्तिश्रद्धाभियुक्तस्य षण्मासात्प्रत्ययो भवेत् ॥१९॥
ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः॥
अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः॥२०॥
इति श्री सरस्वती रहस्य स्तोत्रम्