। विद्या प्राप्ति विमर्श ।।

 ┈┉═ ❀(("ॐ"))❀ ═┉┈


🪷।। विद्या प्राप्ति विमर्श ।।🪷


🪷-- ऋषियों ने उपनिषदों में जिस अर्थ में विद्या का प्रयोग किया है आज उसे लोग भूल गये हैं। आज विद्या का अर्थ है ग्रन्थात्मक ज्ञान जिसे लिखकर, पढ़ कर, पढ़ा कर, रट कर, समझ कर प्राप्त किया जाता है। उपनिषदों में जिस अर्थ में विद्या प्रयुक्त है वह मूल प्रकृति स्वरूपा, सांख्य रूपिणी, मोक्षदायिनी है।आज सामान्य अर्थ में विद्या साक्षरता और भौतिक ज्ञान का पर्याय है।


🪷 -- माताओं से प्रार्थना ---- जो माता बन सकती हैं या बनने की स्थिति में हैं वे अपनी आने वाली संतान के प्रति अत्यन्त सतर्क रह कर ऐसी विद्या दें कि विश्व की कोई भी यूनिवर्सिटी उसके संस्कार को नष्ट न कर सके न ही उसकी दृढ़ आस्था को बदल सके। माता प्रथम गुरु होती है। अतः इस विषय पर उसका ही सर्वाधिक प्रभाव संतान पर होता है।


माता की सन्नद्धता से उसकी संतान वज्र की तरह दृढ़ हो जाती है। वह अपने वृद्धों का अपमान और त्याग कभी भी नहीं करती है।


🪷 -- विद्यारम्भ और अक्षरारम्भ- कुलपुरोहित, कुलगुरु, शिक्षक, विद्वान या स्वयं माता-पिता शुभ-मुहूर्त में उत्तरायण में विद्यारम्भ और अक्षरारम्भ करायें। विद्यारम्भ पांचवें वर्ष में तथा अक्षरारम्भ तीसरे वर्ष में करायें। अक्षरारम्भ होते ही माता अपनी संतान को धीरे धीरे निम्नलिखित मंत्रों-प्रयोगों को बच्चे के भीतर डालना शुरू करे--

१-- सरस्वती मन्त्र और प्रार्थना को याद करायें।

२-- वाणी और विद्या में अविफल तेज निवास करे इसके लिए तीन चार श्लोक याद करायें।

३-- ॐ नमः शिवाय , 

      ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, 

      ॐ नमो भगवते आंजनेयाय महाबलाय स्वाहा      

       ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे


इन चार में से किसी एक देवता के मन्त्र को संतान से बोलवाना शुरू करायें। आरम्भ के दिनों में ५ या ११ बार करायें। याद हो जाने के बाद १०८ बार जप करने की प्रेरणा दें।

        

सोमवार के दिन शिवजी पर कच्चा दूध बच्चे/बच्ची से चढ़वायें। इससे उसके भीतर तीन वर्ष के अन्दर इतना प्रबल शुभ दृढ़ भाव उत्पन्न हो जायेगा कि वह संतान किसी भी प्रलोभन से हिलेगी नहीं।

( दक्षिण भारत के हिन्दू अपनी संतान को आरम्भ से ही प्रशिक्षित करते हैं। मैं ऐसे अनेक वैज्ञानिक महानुभावों को जानता हूँ जो कुलक्रम की पूजा में कंठस्थ प्रक्रिया को अपनाये हुये हैं।)


🪷-- सरस्वती मन्त्र के अनेक लघुविधान---

      १-- ॐ शारदे वरदे शुभ्रे ललितादिभिरन्विते।

            वीणा पुस्तक हस्ताब्जे जिह्वाग्रे मम तिष्ठतु।।

      २-- नमस्ते शारदे देवि! काश्मीरपुरवासिनि !

            त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ।।

       ३-- सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।

            विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तुते।।


ऊपर वाला शारदा मन्त्र है और नीचे के दोनों मन्त्र महर्षि आश्वलायन द्वारा विरचित हैं। इनमें से किसी एक का भी पढ़ने से पहले स्मरण करने, जप करने से निर्मलमति और शुभ्र विद्या की प्राप्ति होती है। मेधा वृद्धि होती है।


🪷 -- अविफलता प्राप्ति हेतु कतिपय विलक्षण मन्त्र--

  **-- योsन्तः प्रविष्य मम वाचमिमां प्रसुप्ताम्

                संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।

         अन्यान्श्च हस्त-चरण-श्रवण-त्वगादिन्

                प्राणान् नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ।।

 **--- मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।

         यत् कृपा तमहं वंदे परमानंद माधवम् ।।


ये दोनों श्लोक भगवान विष्णु के हैं जिनके पाठ से अपूर्व विद्या की प्राप्ति होती है। ५ या ११ बार एक दिन में नियत समय पढ़ने से पूर्व स्मरण करने से अद्भुत लाभ होगा।


🪷-- श्री हनुमान जी के मन्त्र---

       १- नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

           बहु व्याहरताsनेन न किंचिदपशब्दितम्।

       २-- मनोजवं मारुततुल्यवेगं

                       जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।

             वातात्मजं वानर यूथ मुख्यं

                       श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।

ये दोनों मन्त्र यदि बाल्य अवस्था में याद कर लिए जायें तो हनुमत कृपा की प्राप्ति हो जाती है।

              

याद रखें स्वल्प भी प्रतिदिवसीय मन्त्र स्मरण व्यक्ति के जीवन को किसी भी रक्षात्मक उपाय से अधिक बचाते हैं। मातायें चाहें तो अपनी संतानों को इन उपायों से वज्र की तरह बल युक्त बना सकती हैं। मेधा में तीक्ष्ण और

स्मृति में दीर्घ धारिणी बना सकती हैं।


🪷*** यात्रा आरम्भ करने से पहले भी बच्चों को कुछ मन्त्र बोल कर प्रस्थान करना चाहिए।इससे उद्देश्य सिद्धि और कार्यकाल में निर्विघ्नता बनी रहती है। पथ के संकट को दूर करने में अदृश्य दैवबल काम करने लगता है। श्री हनुमानजी भी यात्रासे पहले मंत्रों को बोलकर तब प्रस्थान करते थे।आज लोगों को केवल " जय श्री राम " याद रह गया है। मैं स्वयं अपनी यात्रा आरम्भ में हनुमान जी कृत मन्त्र का प्रयोग करता हूँ --

जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः।

राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः।।

                        *

दासोहं कौशलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः।

हनुमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः।।

                        *

नमोस्तु रामाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै।

नमोस्तु रुद्रेन्द्र-यमानिलेभ्यो नमोस्तु चंद्रार्क-मरुद्गणेभ्यः ।। 

           

ये कुछ ऐसी विद्यायें हैं जो बच्चों को अपराजेय, तीक्ष्ण, भारतीय संस्कृति में सन्नद्ध और दृढ़ चरित्र बनाती हैं।इनको जीवन में उतार कर बच्चे शराबियों, कबाबियों, हत्यारों, भ्रष्टों, नीचों से प्रभावित हुए बिना निकल आते हैं और अपने चरित्र का अमिट छाप विरोधी खेमे में भी छोड़ आते हैं। आज अवश्यकता है मन्त्ररूपी अमृत को पिला कर संतानों को सनातनी संस्कृति का ध्वजवाहक बनाने की।


इस दिशा में माता पिता पहल करेंतो अपूर्व परिवर्तन होगा।संतान जब प्रणाम करे, चरण स्पर्श करें तो आशीर्वाद की वृष्टि से उसे नहला दीजिये ---

आयुष्मान् - (आयुष्मती), कीर्तिमान् ( कीर्तिमती), विद्वान्

( विदुषी) भव।

       

आपके मुख से निकली सरस्वती कभी किसी क्षण आपके बच्चे के जीवन को अपूर्व तेज और विलक्षण मेधा से भर सकती है। आशीर्वाद देने में कृपणता न दिखलायें।

         विद्यासि सा भगवति परमा हि देवि!

(भगवती ही विद्या हैं। वे ही मेधा, कीर्ति और प्रज्ञा हैं।)


 

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने