"भारतीय संस्कृति"


"भारतीय संस्कृति"

संस्कृति क्या है? संस्कृति शब्द संस्कार से जुड़ा है।
संस्कार का अर्थ है- सुधार करना, संशोधन और परिष्कार करना।
अंग्रेजी भाषा में उसके लिए 'कल्चर' शब्द है, जिसका अर्थ पैदा करना, सुधार करना है। 
संस्कार व्यक्ति तथा समाज दोनों के होते हैं, जातीय संस्कारों को संस्कृति कहते हैं। 
किसी देश की जलवायु के अनुसार रहन-सहन की विधियों तथा विचार – परम्पराओं से जातीय संस्कार बनते हैं, ये परम्परा से प्राप्त होते हैं तथा व्यक्ति के पारिवारिक और सामाजिक जीवन में दिखाई देते हैं।

 संस्कृति के दो पक्ष होते हैं -- बाह्य तथा आन्तरिक।
संस्कृति किसी देश-विशेष के भौतिक वातावरण तथा विचारों से जुड़ी होती है।
             
                 "भाषा और संस्कृति"
भाषा का सम्बन्ध किसी देश की जातीय संस्कृति से होता है-
       कुशल---- शब्द पूजा के लिए कुश लाने।
       प्रवीण---- शब्द वीणा बजाने से जुड़े हैं।
 'गोधूलि, गवेषणा, गोष्ठी, गवाक्ष, गुरसी आदि शब्द गौ' से सम्बन्धित हैं, गौ अर्थात गाय का हमारी संस्कृति में विशेष महत्त्व है।

                "संस्कृति का बाह्य स्वरूप" 
भारतीय संस्कृति में जमीन पर बैठना, हाथ से खाना, नहाकर खाना, लम्बे ढीले कपड़े पहनना, बेसिले कपड़े पहनना अच्छा माना जाता है, यह भारत की जलवायु तथा आवश्यकता के अनुकूल है, यहाँ हर समय तथा स्थान पर जूते पहनने की मान्यता नहीं है, नहाने को धर्म का अंग माना जाता है।
बिना सिले कपड़े धोने में सुविधा की दृष्टि से पवित्र माने जाते हैं, सिर ढकना अच्छा माना जाता है, मांगलिक वस्तुओं का विधान देश के वातावरण तथा रुचि के अनुरूप है, फूलों में कमल को विशेष महत्त्व प्राप्त है। 

कमल शारीरिक सौन्दर्य का उपमान है-
"नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्"

 आम, कदली, दूर्वादल, पूगीफल (सुपाड़ी), श्रीफल को पूजा-पाठ में स्थान दिया गया है, अश्वत्थ (पीपल) को वृक्षों में विशेष महत्ता प्राप्त है। 
हिमालय, गंगा, गरुड़, बसन्त ऋतु तथा कीर्ति ,वाणी, स्मृति, बुद्धि ,धृति, आदि गुणों को प्राप्त महत्ता भारत की जातीय मनोवृत्ति की परिचायक है।

               "संस्कृति के आंतरिक अंग"

भारतीय संस्कृति में धृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस (मनुस्मति में) धर्म के लक्षण बताये गये हैं --
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।"

सभ्य तथा शिष्ट मनुष्यों में इन लक्षणों के साथ अभय, स्थित-प्रज्ञता, सात्विकता आदि का होना भी जरूरी है।
दान देना, मितभाषी होना, यश के लिए विजय प्राप्त करना, पितृऋण चुकाने के लिए गृहस्थ बनना आदि जीवन के आवश्यक कर्तव्य हैं, बचपन में विद्याध्ययन, यौवन में धनोपार्जन तथा सुखभोग, वृद्धावस्था में मुनि वृत्ति धारण करना तथा योग द्वारा शरीर त्यागना भी भारतीय संस्कृति में बताया गया है। 

1.आध्यात्मिकता- इसमें सत्य, अहिंसा, समस्त जीवों को अपने समान समझना, सबका हित चाहना, ईश्वर के न्याय तथा परलोक में विश्वास, आवागमन की मान्यता, नश्वर शरीर का तिरस्कार इत्यादि बातें सम्मिलित हैं, नश्वर शरीर का मोह न होने के कारण भारतीय बड़े से बड़े बलिदानों के लिए तैयार रहे हैं, हमारे यहाँ त्याग, तप तथा संयम की महत्ता रही है।

2.समन्वय बुद्धि - आत्मा की एकता के कारण भारत में अनेकता में एकता देखी गई है, इसी से मिलती-जुलती समन्वय की भावना है, भारतीय विचारकों ने सभी वस्तुओं में सत्य के दर्शन किए हैं, हमारे यहाँ धर्म-परिवर्तन को महत्त्व नहीं दिया गया। 
तुलसीदास ने शैव और वैष्णव, ज्ञान और भक्ति, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया था। 
प्रसाद की कामायनी में ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय हुआ है।

3.वर्णाश्रम----- भारतीय संस्कृति में चार वर्णों तथा चार आश्रमों की व्यवस्था है,इसके अन्तर्गत कार्य विभाजन को महत्त्व दिया गया है, स्वार्थ वश कुछ लोगों ने सामाजिक विभाजन को संकुचित और अपरिवर्तनीय बना दिया, हमारे सभी प्रचारकों तथा सुधारकों ने इसका विरोध किया है।
पुरुषसूक्त ने चारों वर्णों को एक ही विराट शरीर का अंग माना है----
"सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ।।
ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः।
स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।।
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत।।"

एक ही शरीर के अंगों में कोई ऊँचा-नीचा नहीं होता।

4.अहिंसा, करुणा, मैत्री और विनय- अहिंसा को हमारी संस्कृति में विशेष महत्व प्राप्त है, करुणा, मैत्री तथा विनय के मूल में अहिंसा की भावना है --
      "अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः।
        अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥"

किसी की हत्या करना ही हिंसा नहीं है, उसका जी दुखाना भी हिंसा है। 

भारत में सत्य बोलने किन्तु प्रिय बोलने की शिक्षा दी गई है-
      "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् ,न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ।
        प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:।।"

करुणा छोटों के प्रति, मैत्री बराबर वालों के साथ तथा विनय बड़ों के प्रति होती है, किन्तु सभी के प्रति शिष्टता का व्यवहार अपेक्षित है, विद्या से पूर्व विनय आवश्यक है, विनय भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

5.प्रकृति-प्रेम- भारत पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। भारत में विभिन्न ऋतुएँ सुखद तथा आकर्षक रही हैं। 
यहाँ की पुरियां मोक्षदायिनी -----
               "अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका।
                  पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।'

नदियाँ मोक्षदायिनी हैं-----
               "गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।। 
               नर्मदे सिन्धु कावेरि जलऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।।"

हिमालय प्रेरणा का स्रोत है----
       "अनन्तरत्न प्रभवस्य यस्य हिमं,
                        न सौभाग्यविलोपि जातम्। 
        एको हि दोषो गुणसन्निपाते,
                 निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः॥"

 प्रकृति मानव जीवन का अंग तथा साथी रही है। 
महर्षि कण्व शकुंतला के पति के घर जाते समय तपोवन के पशु-पक्षियों, लताओं और वृक्षों से उसकी विदाई की आज्ञा चाहते हैं-
"पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ,
नादत्ते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।
आद्ये वः कुसुमुप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः ,
सेयं याति शकुन्तला पति-गृहं सर्वे रनुज्ञायताम्।।" 

6.अन्य- भारतीय संस्कृति में विश्व को एक परिवार माना गया है, अतिथि को देवता मानते हैं---
                                "अतिथि देवो भव"

शोक के स्थान पर आनन्द को अधिक महत्व प्राप्त है, धार्मिक कार्यों में एकान्त साधना को महत्व प्राप्त है। यद्यपि सामूहिक प्रार्थना भी अमान्य नहीं है, हमारे यहाँ सामाजिकता की तुलना में पारिवारिकता का विशेष महत्व है, सम्मिलित परिवार की प्रथा को व्यक्तित्व के विकास में बाधक नहीं बनने देता है किन्तु व्यक्ति वयोवृद्धों के आदर तथा पारिवारिक एकता का विरोधी भी नहीं बनने देता है।

7.समन्वय की आवश्यकता- भारत में विभिन्न संस्कृतियों का पारस्परिक सम्पर्क हुआ है, इनसे उत्पन्न समस्या का समन्वय द्वारा समाधान करना ही उचित है, किन्तु समन्वय का अर्थ अपना खो देना नहीं है। 
दूसरी संस्कृतियों की उन्हीं चीजों को स्वीकार करना चाहिए, जिनको अपनाकर हमारी संस्कृति समृद्ध हो सके, भाषा, पोशाक, रहन-सहन आदि में अपनी चीजों को त्यागना जातीय व्यक्तित्व को हानि पहुँचायेगा।

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