अन्नदान महादान =========== श्रीमार्कण्डेय मुनि कहते है : ---------------------------

 अन्नदान महादान

===========


श्रीमार्कण्डेय मुनि कहते है :

---------------------------

थके, मांदे, दुबले-पतले पथिक, धूल भरे पैरो से भी भूखे प्यासे आ जाए, और पूछे यहां कोई भोजन देने वाला है? उस समय जो अन्न मिलने का पता बता देता है, वो भी अन्नदाता के समान ही कहा जाता है, और वही पुण्य प्राप्त करता है।


सारे दानों को छोड़ कर केवल अन्नदान करते रहो। इस संसार में अन्नदान के समान विचित्र एवं पुण्यदायक दूसरा कोई दान नहीं है।


जो अपनी शक्ति के अनुसार अच्छे ढंग से तैयार किया हुआ भोजन ब्राह्मणों को अर्पित करता है, वह उस पुण्यकर्म के प्रभाव से प्रजापति के लोक में जाता है।


अतः अन्न ही सबसे महत्त्व की वस्तु है। उससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। वेदों में अन्न को प्रजापति कहा गया है।प्रजापति संवत्सर माना गया है। संवत्सर यज्ञ रूप है और यज्ञ में सब की स्थिति है।


यज्ञ से समस्त चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। अतः अन्न ही सब पदार्थोंसे श्रेष्ठ है। यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है।


जो लोग अगाध जल से भरे हुए तालाब और पोखरे खुदवाते हैं, बावली, कुएँ तथा धर्मशालाएँ तैयार कराते हैं, अन्न का दान करते और मीठी बातें बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी नहीं सुननी पड़ती है अर्थात् यमराज उसे वचन मात्र से भी दण्ड नहीं दे सकते।


जो अपने परिश्रम से उपार्जित और संचित किया हुआ धन-धान्य सुशील ब्राह्मण को दान करता है, उसके ऊपर वसुधा देवी अत्यन्त संतुष्ट होती और उसके लिये धन की धारा सी बहाती हैं।


अन्न-दान करने वाले पुरुष पहले स्वर्ग में प्रवेश करते हैं। उसके बाद सत्यवादी जाता है। फिर बिना माँगे ही दान करने वाला पुरुष जाता है। इस प्रकार ये तीनों पुण्यात्मा मानव समान गति को प्राप्त होते हैं।


- श्रीमहाभारत वनपर्वान्तर्गत मार्कण्डेयसामस्यपर्व

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने