मनुष्य और प्रकृति के बीच का संबंध अत्यधिक गहरा और प्राचीन है। यह संबंध न केवल भौतिक बल्कि आध्यात्मिक भी है। प्रकृति, जिसके भीतर हमें जल, वायु, भूमि और जैव विविधता मिलती है, हमारे जीवन का आधार है। हमारी समस्त गतिविधियाँ प्रकृति पर निर्भर करती हैं। लेकिन आज के समय में मानव गतिविधियों से पर्यावरण पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, वह चिंताजनक है। ऐसे में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना, उसकी रक्षा करना और उसे संरक्षित रखना अति आवश्यक हो गया है। प्रकृति और मनुष्य के बीच का पारस्परिक संबंध।
प्राचीन समय से ही मानव समाज ने प्रकृति से सीधा संबंध स्थापित किया है। हमारे पूर्वजों ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया लेकिन उसकी पुनर्नवीनीकरण प्रणाली का ध्यान रखा। उन्होंने प्राकृतिक तत्वों के प्रति आदरभाव और सहानुभूति दिखाई, यह समझते हुए कि प्रकृति ही जीवन का मूलाधार है। भारतीय संस्कृति में भी प्रकृति का सम्मान करने और उसके साथ संतुलन बनाए रखने पर बल दिया गया है। हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों में नदियों, पेड़ों, पर्वतों और अन्य प्राकृतिक तत्वों को देवता के रूप में पूजा जाता रहा है। यह सांस्कृतिक परंपरा हमें सिखाती है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य जीवन को संपन्न और समृद्ध बनाता है।
असंतुलन की स्थिति: पर्यावरण संकट की ओर:
विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकास ने मनुष्य को कई नई संभावनाएँ दी हैं, लेकिन इस विकास का प्रभाव प्रकृति पर विनाशकारी साबित हो रहा है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और अंधाधुंध संसाधन दोहन से पर्यावरण को भारी क्षति पहुँची है। वनों की कटाई, नदियों का दूषित होना, वायु प्रदूषण, मृदा क्षरण, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ मानव समाज के अस्तित्व पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर रही हैं। इन सबके पीछे प्रकृति से अनियमित और असंतुलित संबंध प्रमुख कारण है।मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का शोषण किया है, लेकिन उसने यह भूल कर दी कि प्रकृति भी एक सीमित संसाधन है। अगर हम उसे नष्ट करेंगे, तो हमारी भविष्य की पीढ़ियाँ संकट में पड़ जाएँगी। आज ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, और जैव विविधता की हानि जैसी समस्याएँ इसी असंतुलन का परिणाम हैं। इन समस्याओं ने हमें एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहाँ प्रकृति की रक्षा के लिए हमारे प्रयासों की पुनर्व्याख्या जरूरी हो गई है।
सामंजस्य का महत्व: प्राकृतिक संरक्षण की दिशा में:
प्रकृति और मनुष्य के बीच सामंजस्य की अवधारणा मानव सभ्यता के टिकाऊ विकास के लिए आवश्यक है। सामंजस्य का अर्थ है – प्रकृति के साथ जीवन जीना, उसका सम्मान करना, और उसमें हस्तक्षेप करते समय उसके नियमों का पालन करना। जब हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं, तो हम यह समझते हैं कि हमारी गतिविधियों का सीधा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है, और हमें उस प्रभाव को सकारात्मक रखने के लिए समुचित कदम उठाने चाहिए। संवेदनशीलता और जागरूकता: प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाने के लिए सबसे पहला कदम है –
1.संवेदनशीलता और जागरूकता।
हम सभी को यह समझना होगा कि प्राकृतिक संसाधन अनमोल हैं और इनका संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। स्कूलों, कॉलेजों और समाज में पर्यावरण शिक्षा को बढ़ावा देना जरूरी है ताकि लोग प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझ सकें और उसके संरक्षण के लिए तत्पर हो सकें।
2.सतत कृषि और जैविक खेती:
हमारे खाद्य उत्पादन के तरीके भी प्रकृति के साथ सामंजस्य के सिद्धांत पर आधारित होने चाहिए। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा की गुणवत्ता में कमी आ रही है और जलवायु पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जैविक खेती और सतत कृषि के माध्यम से हम न केवल मृदा की गुणवत्ता बनाए रख सकते हैं बल्कि जैव विविधता को भी संरक्षित कर सकते हैं।
3.पुनर्नवीनीकरण और अपशिष्ट प्रबंधन:
प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए पुनर्नवीनीकरण और अपशिष्ट प्रबंधन भी महत्वपूर्ण हैं। हमें अपनी उपभोक्तावादी आदतों को नियंत्रित करना होगा और ऐसे उत्पादों का उपयोग करना होगा, जो पुनर्नवीनीकरण योग्य हों। प्लास्टिक और अन्य हानिकारक पदार्थों के स्थान पर प्राकृतिक और पर्यावरण मित्र उत्पादों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
4.ऊर्जा संरक्षण और नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग:
पर्यावरण संरक्षण के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग अत्यधिक महत्वपूर्ण है। नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जलविद्युत का उपयोग हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने में मदद करेगा। इससे हम कार्बन उत्सर्जन को कम कर सकते हैं और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को भी नियंत्रित कर सकते हैं।
5.पानी का संरक्षण:
जल भी एक सीमित संसाधन है और इसका संरक्षण अत्यधिक आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की समस्या और गंभीर हो गई है। हमें पानी के स्रोतों को संरक्षित करना होगा और उसके उपयोग में सावधानी बरतनी होगी। वर्षा जल संचयन जैसी तकनीकों को अपनाकर पानी की बचत की जा सकती है और सूखे की स्थिति से निपटने में मदद मिल सकती है।
सामूहिक प्रयास और नीतियाँ:
प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने की जिम्मेदारी न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सामूहिक स्तर पर भी होनी चाहिए। सरकारों, गैर सरकारी संगठनों, उद्योगों और समाज के प्रत्येक वर्ग को एकजुट होकर प्रयास करने होंगे। पर्यावरण संरक्षण के लिए कठोर कानूनों और नीतियों का निर्माण और उनका पालन सुनिश्चित करना आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देशों को आपसी सहयोग से जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जैव विविधता संरक्षण जैसे मुद्दों पर ठोस कदम उठाने होंगे। भारत जैसे विकासशील देशों में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण पर्यावरण पर बड़ा दबाव है। इसलिए, हमें विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। 'सतत विकास' का मॉडल अपनाकर हम विकास के साथ-साथ पर्यावरण की भी सुरक्षा कर सकते हैं। इसके लिए सरकार की योजनाएँ जैसे 'स्वच्छ भारत अभियान', 'नमामि गंगे योजना', और 'नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज' सकारात्मक दिशा में कदम हैं।
निष्कर्षतः प्रकृति के साथ सामंजस्य ही प्रकृति की रक्षा का मूलमंत्र है। जब हम प्रकृति का सम्मान करते हैं, उसकी सीमाओं का पालन करते हैं और उसकी रक्षा के लिए प्रयास करते हैं, तब ही हम एक स्वस्थ और सुरक्षित भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं। हमें यह समझना होगा कि हमारा अस्तित्व प्रकृति के बिना असंभव है। इसलिए, हमें अपनी जीवनशैली, नीतियों और कार्यों में प्रकृति के प्रति सहानुभूति और सम्मान को प्राथमिकता देनी होगी। एक सामंजस्यपूर्ण समाज ही प्रकृति की रक्षा कर सकता है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित वातावरण प्रदान कर सकता है।
लेखक : पर्यावरणविद् हैं।
वरिष्ठ संवाददाता पंकज कुमार गुप्ता जालौन उत्तर प्रदेश खास खबर