क्या है अत्यंत पिछड़ा वर्ग की कहानी? क्या वाक़ई जनता का भला चाहते हैं नितीश? क्या मध्य प्रदेश की राजनीती में भी हो रही ईबीसी वर्ग की दस्तक?

नीमच। यह कहानी शुरू होती है वर्ष 1991 से जब पहली बार सामान्य वर्ग की उन जातियों को जो गरीबी और शिक्षा के स्तर पर पिछड़ी हुई थी को अलग कर एक नए वर्ग की उत्पत्ति हुई जिसका नाम था अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी। दरअसल भारत में ओबीसी की जनसँख्या भारत की कुल जनसँख्या की 41% है जो कि भारत की राजनीती पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। 

यही नहीं, कुछ राज्यों में तो ओबीसी की जनसँख्या 50% से भी अधिक है जिनमें सर्वाधिक तमिलनाडु में 76%, केरल में 65%, बिहार में 63%, कर्णाटक में 55%, उत्तर प्रदेश में 54% और मणिपुर, सिक्किम, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में >50% है। और तो और मध्य भारत की बात करें तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी ओबीसी जनसँख्या 40% से अधिक है। 

दरअसल 1991 की मंडल कमीशन की रिपोर्ट जिसने भारतीय संविधान में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया से भी 20 वर्ष पूर्व 1971 में जब जननायक कपूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने जो स्वयं एक अत्यंत पिछड़ा वर्ग परिवार से आते थे, उन्होंने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को न्याय दिलाने के लिए मुंगेरीलाल कमीशन का गठन किया जिसने वर्ष 1976 में पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए एक रिपोर्ट सौंपी थी, लेकिन उस समय तक बिहार के मुख्यमंत्री बदल चुके थे और उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिश को नज़रअंदाज़ करते हुए कोई क़दम नहीं उठाया। 

किन्तु जब कपूरी ठाकुर पुनः वर्ष 1977 में बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिश के अनुसार 34 जातियों को पिछड़ा वर्ग और 94 जातियों को अत्यंत पिछड़ा वर्ग या ईबीसी में सम्मिलित कर उनके लिए क्रमशः 8% और 12% आरक्षण करने का निर्णय लिया गया, हालाँकि बाद में इस निर्णय को माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया क्योंकि अभी तक संविधान में ओबीसी आरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं था। 

90 के दशक में लालू प्रसाद यादव सरकार को बिहार की राजनीती में ओबीसी और ईबीसी का महत्व पता चल चूका था जो कि बिहार की कुल जनसँख्या का 63% भाग थे और केंद्र सर्कार द्वारा संविधान में भी ओबीसी आरक्षण के लिए प्रावधान कर दिया गया था तो वे भी ओबीसी वर्ग को लुभाने की कोशिश में लग गए। किन्तु कथनी और करनी में अंतर के चलते वर्ष 2005 में उनकी सरकार सतत 20 वर्ष शासन करने के पश्चात् गिर गयी और नीतीश कुमार (7 दिन के CM) बिहार के मुख्यमंत्री बने। 

चूँकि नीतीश कुमार भी पिछड़ा बर्ग से आते हैं, वर्ष दर वर्ष अपने राजनीतिक परिवेश को ताकतवर बनाने के उद्देश्य से वे ओबीसी और ईबीसी आरक्षण में वृद्धि करते गए जिसमें वर्तमान में ईबीसी आरक्षण 25% और ओबीसी आरक्षण 18% तक बढ़ा दिया गया है। 

मध्य प्रदेश की बात करें तो राहुल गाँधी के दबाव में केंद्र सर्कार की जातिगत जनगणना पर की गई घोषणा के बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि मध्य प्रदेश में भी ओबीसी जनसँख्या का अनुपात 40% से बढ़कर 50% होने की संभावनाए हैं। ऐसा इसलिए होगी कि कई जातियां जो की वर्तमान में सामन्य वर्ग में अति है जो कि मध्य प्रदेश में 25 वर्ष से सत्ता में काबिज़ भारतीय जनता पार्टी का कोर वोटर बैंक रही है, उनको भी ओबीसी वर्ग में सम्मितलित कर आरक्षण का लाभ दिलाया जाना लगभग तय है। 

दरअसल मार्च 2019 में कांग्रेस की अल्पकालिक कमलनाथ सरकार ने भी इसी वोटर बैंक को तोड़ने के लिए ओबीसी कोटा का आरक्षण 14% से बढ़ाकर सीधा 27% प्रतिशत कर दिया था, किन्तु ज्योतिरादित्य सिंधिया की ग़द्दारी के चलते कमलनाथ सरकार गिर गई और इस फैसले का फायदा ना चाहते हुए भी भाजपा को होने लगा। हालाँकि इस फैसले पर आज भी कई याचिकाएं माननीय न्यायालयों में लंबित है किन्तु राजनीतिक लाभ के चलते इस पर कार्यवाही तो क्या सुनवाई भी सरकारें करने को सहमत नहीं। 

वर्तमान में मध्य प्रदेश में अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए तो कोई मांग उठती नज़र आ नहीं रही किन्तु बिहार के राजनीतिक परिवेश को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा की जल्द ही मध्य प्रदेश सहित अन्य पिछड़ा वर्ग बहुल राज्यों में भी अत्यंत पिछड़ा वर्ग या ईबीसी की जनगणना और आरक्षण दिलवाने के नाम पर राजनितिक दल अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रलोभन देने से नहीं चूकेंगे।

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