(देहरादून से भरत सिंह रावत)
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देहरादून में रहने वाले स्वयंसेवक समाजसेवी लेखक बुद्धिजीवी
श्री प्रेम बड़ाकोटी जी का हिंदी दिवस पर कहना है कि १४ सितम्बर १९४९ को देश की संविधान सभा ने हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा के रूप मे स्वीकार किया।
इस दिन को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाने की परम्परा प्रारम्भ हुई। लम्बी परतन्त्रता से मुक्त होकर देश की कोई अधिकृत भाषा होनी चाहिये, इसीलिये इस औपचारिकता की पूर्ति अपरिहार्य थी। यद्यपि हिन्दी शताब्दियों से देश के कार्य व्यवहार में मातृभाषा के रूप में प्रचलित है ही। बड़ी संख्या मे भारतीय साहित्य हिन्दी में लिखा गया, अन्यथा देव नागरी में, जिसे हिन्दी के समकक्ष ही मान्यता है।
हिन्दी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। देश की जनसख्या में ७७ प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते है, अर्थात् हिन्दी-भाषी हैं। हिन्दी न जानने वालों की संख्या शायद नगण्य होनी चाहिये। जो लोग हिन्दी नहीं बोलते उनमें अधिकाँश हिन्दी समझते हैं। लम्बे समय तक दक्षिण के एक राज्य में हिन्दी विरोध के स्वर भी उठे किन्तु वे केवल राजनैतिक कारणों से थे। आज शनैः शनैः हिन्दी की प्रासंगिकता सकारात्मक रूप से देश तथा विदेशों तक में आच्छादित हुई है। देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं ने आजादी के पहले से ही पूरे देश में हिन्दी को विस्तार दिया, जिसमें प्रमुख रूप से आर्यसमाज का नाम आदरपूर्वक ले सकते हैं। वहीं देश के सबसे बड़े स्वैच्छिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने सौ वर्षों के जीवनकाल में समाज में जो रचनात्मक कार्य खड़ा किया, देशहित की दिशा दी, तथा उत्तर दक्षिण सब ओर हिन्दी राष्ट्रभाषा को अपने संगठन का आधार बनाया और समाज के मन में विश्वास जगाया कि संघ की प्रत्येक शाखा पर, प्रत्येक कार्यकर्ता के मन में हिन्दी के लिये सहज स्वीकृति है। संघ ने अपने विविध संगठनों के द्वारा हिन्दी को सम्यक् रूप से उन्नत किया, सम्मान दिया, और इसे प्रत्यक्ष व्यवहार में लाया। संघ ने देशभर के सभी हिस्सों में अपनी चर्चाओं, गोष्ठियों, व्याखानों, पत्र व्यवहार, तथा प्रकाशित साहित्य के माध्यम से इसे सर्वस्पर्शी स्वरूप प्रदान किया।
भारत तथा देश के बाहर भी अनेक विद्वानों ने हिन्दी का इतिहास, हिंदी का क्रमिक विकास लिखा है। हिन्दी पर अनेकों शोध हुए, शोधपत्र प्रकाशित हुए। फ्राँसीसी विद्वान ग्रासिम तासी ने भी हिन्दी पर विस्तृत लिखा है। उन्होंने हिन्दी भाषा की विशेषताओं का वर्णन किया है। वे कहते हैं;- यह दुनिया की सरलतम भाषा है, जिसने इसे सीखने का प्रयास किया, उसे सफलता मिली है।
सदियों से आध्यात्म की पिपासा लिये असंख्य यात्री, परिव्राजक, जिज्ञासु, भारत में आते रहे हैं। यहाँ रह कर उन्होंने भाषा सीखी, यात्रा के वृतान्त लिखे, और भारत के सानिध्य में जो अनुभूति पायी उसका भी उल्लेख किया, जो आज भी देश के लब्धप्रतिष्ठित पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं। भगिनी निवेदिता लिखती हैं कि मैंने भाषा सीखी तो छोटी सी बस्ती के उन बच्चों से, उन साधारण महिलाओं से, जो व्याकरण से तो दूर हैं किन्तु भाषा से आत्मसात् हैं। उल्लेख योग्य है कि विश्व के अनेक देशों से प्राचीन समय में भारतीय विश्वविद्यालयों में लाखों की संख्या मे जो छात्र पढ़ने आये, आखिर वे सब गैर हिन्दी भाषी विद्यार्थी किस भाषा में पढ़ते होंगे? यहाँ रहने के लिये, सम्पर्क के लिये, उन्होंने भाषा तो सीखी होगी। अपने देश लौटकर उन्होंने यहाँ के प्रेरक अनुभव चीनी यात्री ह्वेन साँग की तरह अवश्य साझा किये होंगे।
माना जाता है कि १२ वीं शताब्दी में हिन्दी का प्रचलन व्यापक हुआ। किन्तु इससे पूर्व बीज रूप में जो सम्पर्क भाषा रही, वह संस्कृतनिष्ठ भाषा हिन्दी की ही जन्मदात्री थी।
१९८० के दशक में जो देशव्यापी स्वस्फूर्त जनान्दोलन हुए उनमे एक प्रभावी आन्दोलन हिन्दी के लिये भी था। उसे अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन कहा गया। वह व्यापक था, जिसमे कालेज विद्यार्थी ही अग्रसर थे, नेतृत्व कर रहे थे। स्थान-स्थान पर अंग्रेजी भाषा मे लिखे गये पट, सूचना संकेतो को आन्दोलनकारियों ने उतरवा दिया, अन्यथा प्रतिष्ठानों, संस्थानों ने स्वयं ही बोर्ड हिन्दी में परिवर्तित कर दिये। सामाजिक संस्थाओं ने भी यत्र-तत्र सम्पर्क कर समाज से हिन्दी के प्रयोग का आग्रह किया। इस आग्रह का परिणाम भी हुआ, वर्षभर शैक्षणिक संस्थानों में राष्ट्रभाषा के लिये अनेक आयोजन हुए। राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों मे हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिये अनेक रचनाएं मुखरित हुईं, तथा सरकार के अंग्रेजी प्रेम . पर व्यंग्य किये गये, यथा;-
‘हिन्दी तो पढ़ते गरीब हैं,
मंत्रीपुत्र कैम्ब्रिज पढ़ते।
तुम्ही बताओ फिर कैसे,
हिन्दी-भाषी आगे बढ़ते।
हिन्दी की बात युवाओं के मन मै बैठाने में इस अभियान की बड़ी भूमिका रही।
समय के साथ-साथ हिन्दी के प्रति रुचि तो बढ़ी किन्तु सरकारी कामकाज मे अंग्रेजी का प्रभाव बना रहा। किसी वरिष्ठ अधिकारी को हिन्दी में पत्र लिखने की हिम्मत कैसे हो? आवेदन पत्र पर ध्यान दिया जायेगा कि नही यह असमंजस था। कालान्तर में इस पर विमर्श हुआ और शासनादेश से कार्यालयों में पट लगाये गये कि, आवेदन हिन्दी में भी स्वीकार किये जाते हैं। विचित्र है, कि स्वाधीनता के वर्षों बाद भी राष्ट्रभाषा में आवेदन प्राप्त करने की सूचना प्रसारित करने की आवश्यकता होती है।
स्वाधीनता के ७७ वर्षों बाद भी मन में हिन्दी के लिये जैसा भाव चाहिए, जैसी चाह चाहिये, उसका अभाव दिखता है। हिन्दी में लिखा बहुत गया है, लिखा जा रहा है, हिन्दी पर चर्चा भी होती है किन्तु राष्ट्रभाषा में व्यवहार कहीं अभी शेष ह। आवश्यकता आग्रह की है, अपनी भाषा के प्रति आत्मीयता की है।
हमे स्मरण होगा कि, श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी ने १९७७ मे विदेश मंत्री के नाते आमन्त्रित, संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में जो व्याखान दिया था, उसके पीछे आत्मप्रसिद्धि नहीं बल्कि विश्वमंच पर अपनी भाषा तथा संस्कृति का परिचय, उसकी प्रतिष्ठा, तथा देशवासियों के मन में आत्मविश्वास की अनुभूति हो, यही आशय था। राष्ट्र संघ में हिन्दी में उद्बोधन करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। इस भाषण के माध्यम से दुनिया को यह भी आभास कराया कि विश्व की प्राचीनतम भाषा देववाणी संस्कृत से निस्रत हिन्दी में संसार के योग्य मार्गदर्शन का प्रबल सामर्थ्य है तथा भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम का मन्तव्य निहित है।
इतिहास यह बताता है कि पराधीनता काल में अंग्रेजी सीखने या बोलने की मजबूरी रही होगी किन्तु आज हिन्दी सीखने, बोलने के प्रति दुनिया का आकर्षण बढ़ा है। हाल ही में प्रधानमंत्री के यूक्रेन प्रवास के समय भारतीय संवाद प्रतिनिधि ने जिस विद्वान महिला से यूक्रेन की त्रासदी का वर्णन जाना, उसने भाषा के सन्दर्भ में यह भी बताया कि वह स्वयँ हिन्दी सीखकर, उसके लिये काम करने की प्रबल इच्छा रखती है। अन्य उदाहरण के लिये आज वैश्विक स्तर पर हिन्दी पर जो कार्य हो रहा है, कभी उसकी समीक्षा भी होगी तो हमें गर्व अवश्य होगा।अमेरिका के ४५ विश्वविद्यालयों सहित विश्व के १७६ से अधिक वि०वि० में हिन्दी पढ़ाई जाती है तथा हिन्दी के योगदान पर विशाल परिचर्चाएं भी होती हैं। अंग्रेजी भाषा के लिये हिन्दी व संस्कृत ने जो असंख्य शब्द दिये, इस ऐतिहासिक योगदान पर ब्रिटेन में जो कार्यशाला हुई उसमें यह स्वीकार किया गया कि संस्कृत व हिन्दी का अंग्रेजी पर अनन्य उपकार है। इस विषय को अनेकों बार विद्वानों के श्रीमुख से ‘भारत की विश्व को देन’ शीर्षक के तहत अनेक मंचों पर शोधपरक ढंग से बोला, सुना गया है। आज ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि, दुनिया भर में जहाँ जहाँ भारतीय मूल के लोग हैं, वे अपनी हिन्दू परम्परा से जुड़ने के लिये हिन्दी सीखने, अपनाने के लिये चेष्ठारत हैं ।
आज के समय में कभी कभी ऐसा लगता है कि हम हिन्दी के लोग भाषा, वेशभूषा तथा खानपान में पाश्चात्य परम्परा, जीवनशैली को जी रहे हैं। दासता से तो हम मुक्त हुए हैं किन्तु मनोवृत्ति में परतन्त्रता की छाया अभी विद्यमान है। तथाकथित प्रगत वर्ग की जीवन दिशा भ्रमित होने से देश की दशा किंचित चिन्ताजनक है। विविध भाषा, सभ्यता की जानकारी होना, यह अच्छा है, किन्तु अपनी सनातन परम्परा का भान, अपनी मातृभाषा का स्वाभिमान तो प्रथमतः चाहिये ही। यही नागरिकता का अहम लक्षण है। हमारे सम्मुख अनेक उदाहरण हैं, संसार के जिन देशों ने स्वयं को आगे बढ़ाया, प्रगतिशील बनाया, शून्य अवस्था से अपना अस्तित्व खड़ा किया, उनका अपने राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के प्रति अगाध प्रेम, अपनापन उनकी विशेषता है, वे किसी अन्य के आश्रित नहीं है। ज्वलन्त उदाहरण एक छोटे से किन्तु सशक्त देश इज्राइल का है। इज्राइली समाज ने दुनिया के मानचित्र पर छितरे, बिखरे अपने लोगों को अपनी मातृभूमि पर व्यवस्थित किया और जीवटता के साथ लुप्तप्राय अपनी मातृभाषा हिब्रू को पुनर्जीवित किया। प्रत्येक देशभक्त समाज को उसका अध्ययन करना चाहिये।
भारतीय स्वतंत्रता के आन्दोलन में जहाँ एक ओर देश के लिये त्याग, बलिदान का आह्वान तथा भारतीय जनमानस का जागरण व स्वदेशी का प्रबल आग्रह था, जिद थी, वहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी के संवर्धन के लिये अखण्ड प्रयास भी उस कालखण्ड के नेतृत्व मे मौजूद थे। ऐसे श्रेष्ठ जनों में, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, महर्षि दयानन्द, महर्षि अरविन्द घोष, सुब्रमण्यमभारती, ऐनी बेसेण्ट, महात्मा गाँधी, बंकिम बाबू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, सी० राजगोपालाचारी, काका कालेलकर, राजा राममोहन राय, वीर सावरकर, डॉ०केशवराव हेडगेवार, देवदास गाँध, जैसे अनेकों क्रान्तिवीरों, मनीषियों के जीवन में हिन्दी के प्रति उत्कट जिजीविषा थी, उनका यह प्रेरक कार्य, राष्ट्रभाषा के लिये समर्पण अनन्त काल तक विद्यमान रहे, देश के भवितव्य के लिये यह पाथेय सिद्ध होगा।
हिन्दी साहित्य के अध्येता, विद्वान-शिक्षक डॉ० सुशील चन्द्र कोटनाला का कथन है कि, हिन्दी साहित्य की रचनाओं, लेखन में पूरे देश के कवियों, साहित्यकारों का बड़ा योगदान रहा है और आज भी है। वे सभी साधुवाद के पात्र हैं, किन्तु प्रशंसा योग्य बात यह है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों जैसे,- गुजरात, महाराष्ट्र, बगाल के विद्वान मनीषयों, क्रान्तिकारियों तथा वहाँ के नेतृत्व की हिन्दी के संरक्षण, संवर्धन में अनुकरणीय भूमिका है।
हिन्दी साहित्य के रचनाकारों की श्रृंखला बड़ी है, गद्य और पद्य दोनो विधाओं के साहित्य शिल्पियों का नामोल्लेख एक दीर्घ तथा दुष्कर कार्य है। उनकी कृति तथा जीवन पर शोध प्रबन्ध भी लिखे गये हैं। जिन साहित्यकारों ने हिन्दी को गौरव प्रदान किया, अपनी सीमित लेखनी से उनका नामोल्लेख इस समय उस महासागर की केवल एक बूँद को स्पर्श करने जैसा होगा। हिन्दी साधकों की इस श्रेणी का पुण्य स्मरण करें तो, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद,स् वामी रामतीर्थ, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, मैथलीशरण गुप्त, डॉ०रामधारी सिंह दिनकर, पं०श्यामनारायण पांडेय, सुमित्रानन्दन पन्त, श्री देव सुमन, महादेवी वर्मा, गोपाल दास नीरज, आचार्य किशोरी दास बाजपेयी, डॉ०शिव प्रसाद डबराल, मनोहर श्याम जोशी, आदि अन्य भी ज्ञात अज्ञात ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रभाषा हिन्दी को विश्व पटल पर गौरव दिलाया है।
हिन्दी भारतीयता की पहिचान है। हमारे मनीषियों का दृढ़ मत था कि, हिन्दी का प्रयोग, व्यवहार, राष्ट्र की एकता को पुष्ट करेगा। अपने इस विशाल देश में बोले जाने वाली बोली, भाषाएँ, साम्भ्रान्त हैं, सम्पन्न हैं, उनमें असीम शब्द सामर्थ्य है, उनका भी विकास अपरिहार्य है, हिन्दी उन सब को एकता के सूत्र में पिरोती है।
अपने प्रदेश उत्तराखंड के सन्दर्भ में विचार करें तो हम देवभूमि के भाग्यवान लोग हैं जहाँ के यशस्वी पुत्र डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल को राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रथम डी०लिट० होने का गौरव प्राप्त है।
यहाँ की मुख्य भाषायें कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी, तथा स्थानीय बोलियाँ संस्कृतनिष्ठ हैं।ये सब परस्पर एक दूसरे से सहअस्तित्व रखती हैं। पहाड़ से पलायन के कारण नई पीढ़ी अपनी बोली, भाषा से दूर होती जा रही है, जो कि भाषा पर संकट का संकेत है। बोली, भाषा प्रशक्षिण या पाठ्यक्रम से नहीं, बल्कि परस्पर सम्पर्क, संसर्ग, तथा सामाजिक माहौल से आती है। आज ये तीनों चीजें न्यून हो गयी, तो फिर समाज की अगली पौध को यह सम्पदा हस्तान्तरित होगी कैसे? भाषा के क्षरण से यहां के भूगोल, परम्परा से लगाव होगा कैसे? यह विचारणीय विषय है।
हिन्दी भारत के जन जन की भाषा है, यह सत्य है, किन्तु इसके उन्नयन के लिये, उसकी अक्षुण्णता के निमित्त जो करणीय कार्य हैं, जिनका वर्तमान में अभाव प्रतीत होता है, यहाँ उनकी संक्षिप्त चर्चा करना उपयुक्त होग। प्रथम यह कि अपने हस्ताक्षर, जो हमारी स्वीकृति और पहिचान को अभिव्यक्त करते हैं, यदि वे हिन्दी में होते हैं तो राष्ट्रभाषा उनकी साक्षी बनती है। स्मरण रहे, जो महापुरुष हमारे आदर्श हैं, उनके हस्ताक्षर देखकर मन आनन्दित होता है, हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा का यह प्रमाण है। तय करें कि हम हस्ताक्षर हिन्दी में ही करेंगे। दूसरा यह कि, हिन्दी हमारी मातृभाषा है, इसमें अपने विचार व्यक्त करने में हमें गर्व की अनुभूति होनी चाहिये। इस विषय पर भी वाद विवाद चलता है, क्लिष्ट हिन्दी, सरल हिन्दी। यह प्रश्न विदेश की भाषा, अंग्रेजी के सम्बन्ध में नही खड़ा होता, जिसका ढ़ाँचा उधार के शब्दों पर टिका है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। हिन्दी सरल है, सौम्य है, अपनों के कारण से तिरस्कार सहती है किन्तु वह सबला है, सदैव सक्षम है।
एक बिन्दु यह भी कि, भारतीय पर्व त्योहार पंचांग में उल्लिखित और हिन्दी महीनों की तिथि के अनुसार होते हैं। क्या हम प्रयासपूर्वक हिन्दी तिथियों का कैलेण्डर घर में टांग सकते हैं? कभी कभार परिवारजनो के साथ बैठे हुए सहज ही, अनौपचारिक रूप से हिन्दी कालक्रम की चर्चा कर सकते हैं। चैत्र, वैशाख से लेकर, माघ, फाल्गुन तक, वर्ष के बारह माह सबको याद हो सकते हैं।
अंग्रेजी के अन्धानुकरण के कारण हिन्दी का आधारभूत पाठ्यक्रम उपेक्षित हुआ है। निबन्ध कला, सुलेख, तर्जनी, वर्तनी, बारहखड़ी, शुद्ध उच्चारण, यह उसके आभूषण हैं, जो आज पाठ्यक्रम से लुप्त हैं। भाषा को जीवन्त रखना है तो शिक्षण, प्रशिक्षण की जो सूक्ष्मतम व्यवस्था भारत में दीर्घ काल से प्रचलित है, उसे पुष्ट करना होगा, यह शासन का भी दायित्व है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी की विकास यात्रा, इसके विस्तार तथा इसको व्यकहार में लाने का एक बड़ा कार्य अथवा योगदान देश मे प्रकाशित होने वाली लक्षावधि पत्र पत्रिकाओं, दूरदर्शन तथा अन्य संवाद माध्यमों द्वारा हुआ है,जो नित्य, निरन्तर घर के भीतर तक पहुंचता है,परिवार का पाथेय भी है। संचार माध्यमों के द्वारा हिन्दी की सेवा,संवर्धन पर खूब लिखा गया है, शोध भी हुआ है।
इस वृतान्त की पूर्णता से पूर्व गत संकल्पों का भी पुनर्स्मरण करें कि राष्ट्रभाषा, राजभाषा, मातृभाषा, जो कुछ भी सम्बोधन दे, हम हिन्दी को राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करेंगे, इसे व्यवहार में लायेंगे और अपनी दिनचर्या का अनिन्न अंग बनाएंगे, यह हमारा सपना है और संकल्प भी ।