भगवान् के नाम का उच्चारण मोक्ष के साथ-ही-साथ धर्म, अर्थ और काम का भी साधन है!
भगवान् का केवल नाम ‘राम-राम’, ‘कृष्ण-कृष्ण’, ‘हरि-हरि’, ‘नारायण-नारायण’, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये, पापों की निवृत्ति के लिये पर्याप्त है। ‘नमः नमामि’ इत्यादि क्रिया जोड़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान् के नाम बहुत से हैं, किसी का भी संकीर्तन कर सकते हैं !
ऐसे अनके प्रमाण मिलते हैं जिनमें भगवन् का नाम धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों की सिद्धि का भी कारण बतलाया गया है—
"जिसकी जिह्वा पर ‘हरि’ ये दो अक्षर बसते हैं, उसे गङ्गा, गया, सेतुबन्ध, काशी और पुष्कर की कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात उसे इनकी यात्रा, स्नान आदि का फल भगवन्नाम से ही मिल गया। जिसने ‘हरि’ इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया, उसने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का अध्ययन कर लिया। जिसने ‘हरि’ ये दो अक्षर उच्चारण किये, उसने दक्षिणा के सहित अश्वमेध आदि यज्ञों के द्वारा यजन कर लिया। 'हरि’ ये दो अक्षर मृत्यु के पश्चात् परलोक के मार्ग में प्रयाण करने वाले प्राणों के लिये पाथेय (मार्ग के लिये भोजन की सामग्री) हैं, संसार रूप रोग के लिये सिद्ध ओषध हैं और जीवन के दुःख और क्लेशों के लिये परित्राण हैं।"
स गँगा स गया सेतुः स काशी स च पुष्करम्।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्या हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण: ।
अधितास् तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम्॥
अश्र्वमेधादिभिर् यज्ञैर्नरमेधै: सदक्षिणै: ।
यजितं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम्।
प्राण प्रयाण पाथेयं संसार व्याधिभेषजम् ।
दु:खक्केश परित्राणं हरिरित्यक्षर द्वयम्॥
यह बात ‘हरि’, ‘नारायण’, 'राम', 'कृष्ण' आदि कुछ विशेष नामों के सम्बन्ध में ही नहीं है, प्रत्युत भगवान् के सभी नामों के सम्बन्ध में हैं; क्योंकि स्थान-स्थान पर यह बात किसी एक नाम को केवल उदाहरण के तोर पर लेकर कही गयी है जैसे— अनन्त के नाम, विष्णु के नाम, हरि के नाम इत्यादि । भगवान् के सभी नामों में एक ही शक्ति है।
भगवन्नाम जप और कीर्तन आदि में देश-काल आदि के भी नियम नहीं हैं और न ही शौच-अशौच आदि के विचार की आवश्यकता।
"भगवान् के नाम का संकीर्तन करने में, भगवान् का अनुकीर्तन (गुणगान) करने में, न देश का नियम है और न काल का, न ही शौच-अशौच आदि का निर्णय करने की भी आवश्यकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। हे राजन्! यज्ञ, दान, तीर्थस्नान अथवा विधिपूर्वक जप के लिये शुद्ध काल की अपेक्षा है, परन्तु भगवन्नाम के इस संकीर्तन में काल-शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। चलते-फिरते, खड़े रहते, सोते-स्वप्न अवस्था में, खाते-पीते हुए भी भगवन्नाम जप एवं यश, गुणों का कीर्तन करके मनुष्य पाप के केंचुक से छूट जाता है।"
न देश काल नियम: , शौचाशौचविनिर्णय:।
परं संकीर्तनादेव राम रामेति मुच्यते॥
न देश नियमो राजन्न काल नियमस् तथा।
विघते नात्र संदेहो विष्णोर् नाम अनुकीर्तन॥
कालोऽस्ति यज्ञे दाने वा स्न्नाने कालोऽस्ति सज्ज्पे ।
विष्णु संकीर्तने कालो नास्त्य्त्र पृथिवीपते ॥
गच्छंस् तिष्ठन् स्वपन्वापि पिबन् भुञ्जञ् जपंस् तथा ।
कृष्ण कृष्णेति संकिर्त्य मुच्यते पाप कञ्चुकात् ॥
"अपवित्र हो या पवित्र – ‘सभी अवस्थाओं में (चाहे किसी भी अवस्था में) जो कमलनयन भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर से पवित्र हो जाता है।"
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपि वा ।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
नाम-संकीर्तन आदि में वर्ण-आश्रम आदि का भी नियम नहीं है ।
"ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज (यवन, मलेछ) आदि जहाँ-तहाँ भगवान् के नाम, कीर्ति/यश का कीर्तन करते रहते हैं, वे सभी समस्त पापों से मुक्त होकर सनातन परमात्मा को प्राप्त होते हैं।"
ब्राह्यणा: क्षत्रिया वैश्या: स्त्रिय: सूद्रान्त्यजातय:
यत्र तत्रानु कुर्वन्ति विष्णोर् नामानुकीर्ततम्।
सर्व पाप विनिर् मुक्तास्तेऽपि यांति सनातनम्॥